कविता : आत्महत्या

हाल में
मौत के ख़ौफ़ से
सहसा वापस आ रहा हूँ मैं
निराशा भी खुशी के साथ खुश है
कि मैं वापस आ गया।

वरन खेद है
कि चन्द्र – जन कैसे अपना लेते
देह को त्यागने का फैसला
जिसका आरंभ इतना कष्ट देय है
कैसे पूरी करते वो ये दुर्लभ यात्रा ?
कैसे झूल जाते है रस्सी पर ?

सामने वाली देह बोली
कि रस्सी साथ तो देती है
मरण तक
तो मैंने पूछा
कि साथ छोड़ दिया किसी ने क्या ?

तो अपनी तंगी के कई कारण बतलाता
जिनमें आज एक चरम पर है बेबफाई
कितना सरल जबाब दिया
जो तेरे साथ हुआ
वो तू करने चला दूसरों के साथ भी
अगर साथ छोड़ने से देह की रूह काँफ़ जाती है
तो संसार में तो लाखों नित्य संग छोड़ जाते हैं।
तो फिर इतनी आबादी कैसे?

✒ शैलेन्द्र गुप्ता
_9/8/19_11:05अपरान्ह
चरखारी महोबा बुन्देलखण्ड

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